अगर आपको लॉन्ग टर्म के लिए फंडामेंटल स्ट्रांग कंपनी चुननी है तो आपको उसका EBITDA के आधार पर वैल्यूएशन करना बहुत जरूरी हो जाता है।
होलसेल और रिटेल में क्या अंतर है?
आज के इस आर्टिकल में हम जानेंगे कि रिटेल एवं होलसेल में क्या अंतर होता है। इन दोनो को करने में क्या लागत (पूँजी) लगती है और किसको करने में कितना फायदा है। अगर इस आर्टिकल में आपके कोई प्रश्न का उत्तर नहीं मिल रहा हो तो कृपया मार्जिन और प्रॉफिट में क्या अंतर है मार्जिन और प्रॉफिट में क्या अंतर है नीचे कमेंट बॉक्स में अपने प्रश्न पूछें । मैं जल्द से जल्दी उस टॉपिक के बारें में भी विस्तार से बताऊंगा।
आसान शब्दों में कहूं तो रिटेल बिज़नेस (व्यापार) में दिन प्रतिदिन आम पब्लिक से डीलिंग करना पड़ता है जो दैनिक सामान खरीदते हैं, जबकि होलसेल बिज़नेस में भी आप पब्लिक से लेन देन कर सकते है लेकिन इसमें ज्यादातर रिटेल दुकानदार आपसे खरीदारी करता है। होलसेल व्यापार में आप जो भी बेचते है उसको ज्यादा क्वांटिटी में बेचते है। रिटेल बिज़नेस चलाने वाले अपना माल होलसेल बिज़नेस चलाने वाले से खरीदते है।
ये चुनाव आपको करना है कि आप रिटेल व्यापार करना चाहते है कि होलसेल। चुकि रिटेल बिज़नेस काम लागत में भी शुरू किया जा सकता है लेकिन होलसेल बिज़नेस के लिए आपको ज्यादा पूंजी लगाना पड़ेगा। रिटेल शॉप शुरू करने के लिए 3-4 लाख रूपए भी काफी है लेकिन वहीँ होलसेल बिज़नेस में चुकि ज्यादा क्वांटिटी में लेना पड़ता है तो लागत 50 लाख तक भी जा सकता है शुरुवात में।
होलसेल और रिटेल बिज़नेस में कितना मार्जिन रहता है?
रिटेल बिज़नेस में मार्जिन 4% से लेकर 100% तक मिलता है लेकिन ये अलग अलग ब्रांड के प्रोडक्ट्स पर निर्भर करता है। ज्यादा तेजी से बिकने वाले उत्पाद पे मार्जिन काम रहता है। वही अगर किसी ब्रांड का सामान काम बिकता है तो कंपनी ज्यादा मार्जिन देती है ताकि दुकानदार उसको और बेचे।
जबकि होलसेल बिज़नेस में आमतौर पे मार्जिन 4% मार्जिन और प्रॉफिट में क्या अंतर है से लेकर 8% तक रहता है। होलसेल बिज़नेस का टर्नओवर प्रतिदिन लाखों में हो सकता है इसलिए 4% प्रतिदिन के हिसाब से अच्छी खासी खड़ा हो सकता है।
फ़्यूचर्स और ऑप्शंस – इनके बीच में क्या अंतर हैं ?
फ्यूचर एंड ऑप्शंस के बीच अंतर, दायित्वों (ओब्लिगेशंस), रिस्क, एडवांस पेमेंट और कॉन्ट्रैक्ट एक्सेक्यूशन कब किया जा सकता है, इन सब पर केंद्रित है ।
फ्यूचर्स कॉन्ट्रैक्ट दो पक्षों के बीच भविष्य में एक निश्चित समय पर एक निश्चित कीमत पर संपत्ति खरीदने या बेचने का एक समझौता है। यहां, खरीदार पहले से तय की गयी भविष्य की तारीख पर संपत्ति खरीदने के लिए बाध्य (ओबलाईज) है।
एक ऑप्शंस कॉन्ट्रैक्ट खरीदार को एक निश्चित कीमत पर संपत्ति खरीदने का अधिकार देता है। हालांकि, खरीदने के लिए खरीदार की ओर से कोई दायित्व (ऑब्लिगेशन) नहीं है। मगर फिर भी, अगर खरीदार संपत्ति खरीदना चाहे, तो विक्रेता इसे बेचने के लिए बाध्य है।
जोखिम (रिस्क)
फ्यूचर्स कॉन्ट्रैक्ट होल्डर भविष्य की तारीख में खरीदने के लिए बाध्य है, भले ही उनके लिए ये घाटे का सौदा हो। मान लीजिए कि एसेट का बाजार मूल्य कॉन्ट्रैक्ट में लिखा मूल्य से नीचे आता है। खरीदार को फिर भी इसे पहले से एग्रीड कीमत पर खरीदना होगा और नुकसान उठाना होगा।
एक ऑप्शंस कॉन्ट्रैक्ट में खरीदार को यहां एक फायदा है। यदि एसेट वैल्यू सहमत (अग्रीड) मूल्य से कम हो जाता है, तो खरीदार इसे खरीदने से मना कर सकता है। यह खरीदार के नुकसान को सीमित या कम करता है।
दूसरे शब्दों में, एक फ्यूचरस कॉन्ट्रैक्ट अनलिमिटेड लाभ या हानि ला सकता है। इस बीच, एक ऑप्शंस कॉन्ट्रैक्ट अनलिमिटेड लाभ ला सकता है, लेकिन यह संभावित (पोटेंशियल) नुकसान को कम करता है।
एडवांस पेमेंट:
फ्यूचर्स कॉन्ट्रैक्ट में प्रवेश करते समय कोई एडवांस पेमेंट नहीं देना होता है। लेकिन खरीदार असेस्ट्स के लिए सहमत कीमत एग्रीड प्राइस देने के मार्जिन और प्रॉफिट में क्या अंतर है लिए बाध्य है।
एक ऑप्शंस कॉन्ट्रैक्ट में खरीदार को प्रीमियम अमाउंट खरीदना पड़ता है। इस प्रीमियम अमाउंट का पेमेंट ऑप्शंस खरीदार को भविष्य की तारीख में संपत्ति को कम आकर्षक होने पर नहीं खरीदने का विशेषाधिकार देता है। यदि ऑप्शंस कॉन्ट्रैक्ट होल्डर संपत्ति को नहीं खरीदना चाहता है, तो उसे, पे किये गए प्रीमियम अमाउंट का नुकसान होता है।
दोनों ही मामलों में, आपको कुछ कमीशन पे करना पड़ सकता है।
मार्जिन और प्रॉफिट में क्या अंतर है
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Net Income क्या होता है :
Net Income का मतलब आखिर में कंपनी के हाथ में जितने पैसे बचत हैं उन्हें समझाता है और आम तौर पर नेट प्रॉफिट को ही कंपनी का नेट इनकम कहा जाता है ।
लेकिन अगर कंपनी अपनी प्रॉफिट में से शेयर होल्डर्स को Dividend प्रदान करती है तो उस स्थिति में कंपनी का नेट इनकम निकाल ने के लिए उसके नेट प्रॉफिट में से डिविडेंड के मूल्य को माइनस करना पड़ता है ।
Net income = Net Profit – Dividend
Gain क्या होता है ?
वित्तीय लेखांकन में, लाभ अक्सर किसी कंपनी के कुछ लेन-देन से संबंधित होते हैं जो कंपनी की मुख्य व्यावसायिक गतिविधियों से बाहर होते हैं। ऐसे लेन-देन जो मार्जिन और प्रॉफिट में क्या अंतर है किसी कंपनी की मुख्य व्यावसायिक गतिविधियों से बाहर होते हैं, गैर-परिचालन गतिविधियाँ कहलाते हैं।
उदहारण :
आइए मान लें कि एक कंपनी एक खुदरा विक्रेता है जिसकी मुख्य व्यावसायिक गतिविधियां माल की खरीद और पुनर्विक्रय हैं। जब खुदरा विक्रेता 5 करोड़ का माल बेचता है जिसे उसने 3 करोड़ की लागत से खरीदा है, तो खुदरा विक्रेता का आय विवरण 5 करोड़ की बिक्री की बिक्री और 3,000 करोड़ के बेचे गए माल की लागत की रिपोर्ट करेगा। 2 करोड़ का अंतर खुदरा विक्रेता के सकल लाभ, परिचालन आय और शुद्ध आय का हिस्सा है। “लाभ” शब्द उपयुक्त नहीं है क्योंकि गतिविधियों में खुदरा विक्रेता की सामान्य व्यावसायिक गतिविधियाँ शामिल हैं।
हालांकि, यदि वही खुदरा विक्रेता अपनी पुरानी डिलीवरी वैन बेचता है, तो लेनदेन खुदरा विक्रेता की मुख्य व्यावसायिक गतिविधियों जैसे कि माल खरीदने और बेचने से बाहर है। इसलिए वैन की बिक्री को माल की बिक्री में शामिल नहीं किया जाएगा। इसके बजाय, एक लाभ (या हानि) को अक्सर अन्य आय के शीर्षक के तहत कंपनी की गैर-ऑपरेटिंग वस्तुओं में से एक के रूप में रिपोर्ट किया जाएगा।
EBITDA मार्जिन क्या होता है ?
EBITDA मार्जिन प्रतिशत के रूप में EBITDA के मार्जिन को दर्शाती है। EBITDA मार्जिन कंपनी की कुल sales की मदद से निकाला जाता है।
ये रेश्यो बताता हैं की EBITDA मार्जिन कुल बिक्री मार्जिन और प्रॉफिट में क्या अंतर है का कितना प्रतिशत है।
उदाहरण –
- EBITDA = 150
- Sales = 500
EBITDA Margin = (150 ÷ 500) × 100 = 30%
इस उदाहरण में XYZ कंपनी का एबिटडा मार्जिन 30% निकल कर आया है। इसका मतलब है कि कंपनी के पास सेल्स के ऊपर 30% का मार्जिन है। EBITDA मार्जिन जितना अधिक होता है उतना बढ़िया माना जाता है।
EBITDA का उपयोग कैसे करें ?(1) EBITDA का उपयोग स्टॉक मार्केट में क्वालिटी स्टॉक चुनने में किया जाता हैं।
ये रेश्यो आपको बताता हैं की कंपनी अपने लिए हुए कर्ज (debt) को वापस कर सकती हैं या नहीं। जैसे की किसी कंपनी का EBITDA ₹100 हैं जबकि टैक्स, डेप्रिसिएशन ₹50 हैं और ब्याज ₹20 हैं।
तो यहाँ EBITDA ₹100 हैं और इंटरेस्ट मात्र ₹20 हैं। यानि की कंपनी अपने इंटरेस्ट को चुकाने में सक्षम नज़र आती हैं।
जबकि इस कंपनी का EBITDA मात्र ₹20 होता और इंटरेस्ट ₹30 तो इस उदाहरण में साफ-साफ दिखाई दे रहा हैं की ये कंपनी अपने डेब्ट चुकाने में असक्षम हैं।
(2) EBITDA को एंटरप्राइज वैल्यू से भी compare किया जाता हैं।
(3) Capital intensive business में EV/EBITDA की मदद से कंपनी की प्राइस को जज किया जाता हैं। ये रेश्यो जितना कम हो उतना बढ़िया माना जाता हैं।
EBITDA के नुकसान
- इससे कंपनी की वास्तविक कमाई का पता नहीं चलता।
- कई कंपनियां अपने गलत फाइनेंस निर्णयों को छुपाने के लिए EBITDA का प्रयोग करती है।
- किसी कंपनी को सटीक तरीके से वैल्यू करने के लिए EBITDA का प्रयोग अन्य वित्तीय मैट्रिक्स के साथ करना पड़ता है।
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EBIT क्या होता हैं ?
EBIT यानि की Earning Before Interest and Taxes. ब्याज और टैक्स को घटाएं बिना जो earning निकल कर आती है वही EBIT होती है।
स्टॉक मार्केट में फंडामेंटली अच्छे स्टॉक चुनने के लिए हमें अनेक पैरामीटर देखने होते हैं। साथ ही उन पैरामीटर्स को समय-समय पर रिव्यु भी करना होता हैं। इन्हीं पैरामीटर्स में से ही EBITDA को आज हमने इस आर्टिकल में समझा।
आप EBITDA और EBITDA मार्जिन का उपयोग करके क्वालिटी स्टॉक्स को फिल्टर कर सकते हैं।
तो दोस्तों, आज आपने इस आर्टिकल में जाना कि EBITDA क्या होता है (EBITDA Meaning in Hindi), EBITDA मार्जिन क्या हैं और EBITDA का उपयोग कैसे करें।
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EBITDA की फुल फॉर्म क्या होती हैं?
EBITDA की फुल फॉर्म Earning Before Interest Tax Deprecation and Amortization होती हैं।
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