‘शुद्ध’ राजनीति का मूल्यांकन
The translations of EPW Editorials have been made possible by a generous grant from the H T Parekh स्केलिंग रणनीति के बारे में सवाल Foundation, Mumbai. The translations of English-language Editorials into other languages spoken in India is an attempt to engage with a wider, more diverse audience. In case of any discrepancy in the translation, the English-language original will prevail.
चुनावी राजनीति ने नया रूप ले लिया है। अब यहां पर हर कोई सत्ता का हिस्सा बनना चाहता है। इसमें हाशिये के समूहों के नेता भी शामिल हैं। इसे लोग स्केलिंग रणनीति के बारे में सवाल सिद्धांतों के साथ खड़ा होने के तौर पर नहीं बल्कि संभावनाओं के साथ चलने के तौर पर देख रहे हैं।
ऐसे में राजनीतिक रुख को तय करने का काम ‘संभावनाओं की राजनीति’ के जरिए हो रहा है। इस वजह से हम ऐसी राजनीति की आलोचना करते हुए वैकल्पिक राजनीति की बात करने को बाध्य हैं। इसमें सबसे बुनियादी बात यह होनी चाहिए कि नैतिक न्यूनतम जरूरतों के हिसाब से जीवन चलाने की व्यवस्था हो। यह शर्त सार्वभौमिक तौर पर लागू होती है। क्योंकि इसमें हर किसी के लिए सम्मान है। ऐसे में यह सवाल उठता है कि क्या चुनावी राजनीति में वास्तविक बदलावों से समाज के लिए नैतिक न्यूनतम जरूरतें पूरी होती हैं?
ऐसे में उन वास्तविक तत्वों को समझना जरूरी है जिसके आधार पर नैतिक न्यूनतम के लक्ष्यों को हासिल किया जाना चाहिए। अभी की राजनीति की आलोचना का मतलब तब ही है जब शुद्ध या आदर्श राजनीति का विकल्प पेश किया जाए। ऐसी राजनीति नैतिकता और बौद्धिक प्रयासों पर आधारित होनी चाहिए। इसमें यह क्षमता होनी चाहिए कि समीकरणों और तोड़मरोड़ के आधार पर होने वाली राजनीति का सामना कर सके। इस लिहाज से कहें तो शुद्ध राजनीति का विचार मौजूदा राजनीति की आलोचना की तरह है।
राजनीति में सर्वोपरी रणनीति यह है कि इसमें एक तरफ सामाजिक, सांस्कृतिक और भौतिक चीजों के प्रति चिंता हो और दूसरी तरफ इसके बोझ से पूरी तरह से बचा जाए। सत्ताधारी पार्टी अपनी विशेष स्थिति का फायदा उठाकर उन नेताओं को अपने साथ ला सकती है जो वास्तविक समीकरणों में एक तरह से बोझ हैं लेकिन सामाजिक तौर पर उन्हें शामिल करके सत्ताधारी पार्टी समावेशी राजनीतिक पार्टी के तौर पर स्थापित करना चाहती है। यह भी कह सकते हैं कि सत्ता की चाह वाले ऐसे लोग गरीबों की पार्टियों को स्थायी बोझ मान सकते हैं।
आदर्श स्थिति तो यह है कि ऐसे दलों में आने वाले लोगों की मुक्ति के उद्देश्य के प्रति प्रतिबद्धता होनी चाहिए। यह प्रतिबद्धता उन नेताओं में दिखती थी जिन्होंने 1936 में भीम राव आंबेडकर की इंडिपेंडेंट लेबर पार्टी यानी आईएलपी में शामिल होने का निर्णय लिया था। यहां एक सवाल प्रासंगिक हैः क्या अभी की दलित पार्टियों में आईएलपी की मूल भावना है?
ताकतवर सत्ताधारी पार्टियां इस तरह के आंतरिक पलायन को सही मानती हैं। क्योंकि इसके तहत वे उन लोगों को अपने साथ जोड़ने का दावा करते हैं जिन्हें दूसरी पार्टियों ने नजरअंदाज किया। इससे यह दावा भी सही मालूम होता है कि वह समावेशी पार्टी है। क्या इसका निष्कर्ष यह है कि ऐसी पार्टियां शुद्ध राजनीति कर रही हैं? क्या शुद्ध राजनीति की शर्तों को ऐसी पार्टियां पूरा करती हैं?
इस दौर के कुछ दावों का जिक्र जरूरी है जिनके जरिए सकारात्मक राजनीति की बात की जाती है। आरक्षित सीटों पर भारतीय जनता पार्टी की कामयाबी को राजनीतिक विश्लेषक जाति की राजनीति का अंत मान रहे हैं। इससे चुनावी राजनीति में एक सकारात्मक आयाम जुड़ता है। हालांकि, यह न्याय की सबसे रियायती अवधारणा है? भाजपा के बारे में यह बात तब कही जा सकती थी जब वह सामान्य सीटों से अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के उम्मीदवारों को चुनाव लड़ाती और वे जीत जाते। यह एक वास्तविक सकारात्मक कदम होता। यही बात अल्पसंख्यक और महिलाओं के प्रतिनिधित्व पर भी लागू होती है।
एससी और एसटी उम्मीदवारों के आरक्षित सीटों से जीतने पर तुलनात्मक तौर पर आत्मविश्वास की बढ़ोतरी उन वर्गों में होती है जो खुद को अपने मूल सामाजिक समूह से श्रेष्ठ मानते हैं। लेकिन मूल सवाल बरकरार है कि क्या इस तरह की चुनावी राजनीति से ऐसे उम्मीदवार आत्म सम्मान हासिल करते हैं?
इस असमान स्थिति की वजह से एससी/एसटी सदस्य और अन्य सांसद लोक संस्थानों और सार्वजनिक परिदृश्य में खुद को समान स्थिति में नहीं पाते हैं। प्रभावी नेताओं के ‘कल्ट वाले व्यक्तित्व’ की वजह से वे संतुष्टि हासिल करते हैं। पार्टियों का आंतरिक तंत्र ऐसा है जिसमें किसी खास नेता के प्रति नीचे के नेताओं की श्रद्धा को बढ़ावा दिया जाता है। इसमें शुद्ध राजनीति के तहत आने वाला समान व्यवहार नहीं दिखता। चुनावी राजनीति के असमान संबंधों का परिणाम यह होता है कि ये प्रतिनिधि शुद्ध राजनीति के नैतिक न्यूनतम से दूर होते चले जाते हैं।
- गोपाल गुरू
स्केलिंग प्रणाली क्या है | What is scaling system
भिन्न-भिन्न परीक्षकों के लिए प्राप्तांकों का अभिप्राय भिन्न-भिन्न हो सकता है। कुछ परीक्षकों में अधिक अंक प्रदान करने की प्रवृत्ति होती है, कुछ परीक्षकों में कम अंक प्रदान करने की प्रवृत्ति होती है तथा कुछ परीक्षकों में औसत स्तर के अंक प्रदान करने की प्रवृत्ति होती है। इस प्रकार की परिस्थिति में दो। परीक्षको के द्वारा समान अंक प्रदान करने पर भी उनका अर्थ भिन्न-भिन्न हो सकता है। उदाहरण के लिए कोई परीक्षक 20 से 90 के बीच में अक प्रदान करता है, दूसरा परीक्षक 10 से 70 के बीच अंक प्रदान कारता है तथा तीसरा परीक्षक 40 से 80 के बीच अक प्रदान करता है, तब इन तीनों परीक्षकों के द्वारा प्रदान किया गये 55 प्राप्तांक का अर्थ पृथक-पृथक होगा। 55 का प्राप्तांक पहले परीक्षक की दृष्टि में औसत छात्र की अभिव्यक्ति होगा, दूसरे परीक्षक की दृष्टि में श्रेष्ट छात्र की अभिव्यक्ति होगा तथा तीसरे परिक्षक की दृष्टि में कमजोर छात्र की अभिव्यक्ति होगा। स्पष्ट है कि भिन्न-भिन्न परीक्षकों के लिए अंक प्रदान करने का मापदण्ड भिन्न-भिन्न हो सकता है। ऐसी स्थिति में विभिन्न परीक्षकों के द्वारा प्रदान किये गये प्राप्तांकों के आधार पर छात्रों की तुलना करना तार्किक दृष्टि से उचित नहीं होगा । आन्तरिक परीक्षा के दौरान अध्यापकों के द्वारा छात्रों को प्रदान किये अंकों की तुलना करते समय इस प्रकार की कठिनाई और भी अधिक जटिल हो जाती है क्योंकि आन्तरिक मूल्यांकन में प्राप्तांकों का प्रसार, न्यूनतम सीमा व उच्चतम सीमा, में मध्यमान तथा मानक विचलन में विभिन्न अध्यापकों के लिए पर्याप्त अन्तर पाया जाता है।
ग्रेड प्रणाली के अपनाने से भी यह समस्या समाप्त नहीं हो जाती है, उदाहरण के लिए, यदि कोई परीक्षक 5 बिन्दु ग्रेड प्रणाली में कुछ छात्रों को ए. (A) कुछ को बी. (B), कुछ को सी. (C) तथा अत्यन्त कम छात्रों को डी. (D) व एफ. (F) देता है तो उसके लिए औसत ग्रेड बी. (B) है नकि सी. (C) औसत ग्रेड है। इसी प्रकार से यदि कोई परीक्षक ग्रेड ए. (Grade A) तथा ग्रेड बी. (Grade B) को बहुत कम छात्रों को देता है तथा सी. (C), डी. (D), व एफ. (F) ग्रेडों को काफी अधिक संख्या में छात्रों को देता है तो उसके लिए औसत ग्रेड सी. (C) के स्थान पर डी. (D) होगा। स्पष्ट है कि विभिन्न ग्रेड का अभिप्राय उनकी सैद्धांतिक परिभाषा पर पूर्णरूपेण निर्भर न होकर काफी सीमा तक परीक्षक के द्वारा अपनाये गये मानदण्ड पर भी आधारित होता है। अतः भिन्न-भिन्न परीक्षकों के द्वारा प्रदान किए जाने वाले ग्रेड की तुलना भी सरल नहीं है। छात्रों के प्राप्तांकों अथवा ग्रेड को तुलनीय (Comparable) बनाने के लिए यह आवश्यक है कि विभिन्न परीक्षकों के द्वारा प्रदान किये गये प्राप्तांकों अथवा ग्रेड में आवश्यक सुधार किए जाएँ। दूसरे शब्दों में, कहा जा सकता है कि परीक्षकों को आत्मनिष्ठता के कारण प्राप्तांकों अथवा ग्रेडों में आई विसंगतियों को दूर करना चाहिए। परीक्षकों के द्वारा अपनाये गये मापदण्ड की विभिन्नता के कारण आई विसंगतियों को दूर करके प्राप्तांक को अथवा ग्रेड को एक ही मापदण्ड पर ले आने की प्रक्रिया को परिमापन (Scaling) अथवा संशोधन (Calibration) कहते है। अतः विभिन्न परक्षको के द्वारा प्रदान अंकों को एक ही मापदण्ड पर परिवर्तित करना ही परिमापन है । कभी-कभी विभिन्न विषयों की प्रकृति के कारण छात्रों के द्वारा विभिन्न विषयों में प्राप्त अंक अरथवा ग्रेड के मानदण्ड भी भिन्न-भिन्न हो जाते है जैसे संस्कृत विषय में अधिकतर छात्र अधिक अंक प्राप्त करते हैं जबकि अंग्रेजी विषय में कम अंक प्राप्त करते है। इस प्रकार की परिस्थितियों में विभिन्न विषयों के प्राप्तांकों को एक ही मानदंड पर परिवर्तित करना भी परिमापन कहलाता है। प्राप्तांकों को परिमापन (Scaling) करने की अनेक विधियाँ हैं। इसमें से दो सर्वाधिक प्रचलित विधि – रेखीय परिमापन (Linear Scaling) तथा सामान्यीकृत परिमापन (Normalised स्केलिंग रणनीति के बारे में सवाल Sealing) हैं।
रेखीय परिमापन में किसी परीक्षक के द्वारा प्रदान किए गए अंकों को रेखीय समीकरण (Linear Equation) के द्वारा परिवर्तित करते हैं। इस प्रकार के परिवर्तन से प्राप्तांकों के वितरण की प्रकृति नहीं बदलती है। रेखीय स्केलिंग दो आधार पर हो सकती है – ( स्केलिंग रणनीति के बारे में सवाल 1) प्राप्तांकों का विस्तार (Range of Scores) को समान करने के लिए तथा (2) प्राप्तांकों के मध्यमान व मानक विचलन को समान करने के लिए। प्राप्तांकों के विस्तार को समान करते समय रेखीय समीकरण की सहायता से विभिन्न परीक्षकों के द्वारा प्रदान किये गये अंकों के न्यूनतम व अधिकतम प्राप्तीक कुछ भी हो सकते हैं परन्तु साधारणतः विभिन्न प्रदान किये गये न्यूनतम प्राप्तांक निर्धारित कर लेते हैं। इसी प्रकार से विभिन्न परीक्षकों के द्वारा प्रदान किये गये अधिकतम प्राप्तांकों के औसत को परिवर्तित प्राप्तांकों के लिए अपेक्षित अधिकतम प्राप्तांक के रूप में स्वीकार कर लेते हैं। विभिन्न परीक्षकों के द्वारा प्रदान किये गए अंको के मध्यमान तथा मानक विचलन को एक समान करने के लिए भी रेखीय समीकरण का प्रयोग किया जाता है। इसके लिए सबसे पहले परिवर्तित प्राप्तांकों के लिए अपेक्षित मध्यमान तथा मानक विचलन का निर्धारण इच्छानसार कुछ भी किया जा सकता है परन्तु साधारणतः विभिन्न परीक्षकों के द्वारा प्रदान किए गये अंकों के मध्यमानों तथा मानक विचलनों के औसत को परिवर्तित प्राप्तांकों के अपेक्षित मध्यमान तथा मानक विचलन के रूप में स्वीकार कर लेते हैं।
रेखीय परिमापन के द्वारा प्राप्तांकों में संशोधन करने पर प्राप्तांकों के वितरण की विषमता (Skewness) तथा वक्रता (Kurtosis) मूल प्राप्तांकों के वितरण के समान ही रहती है। जब प्राप्तांकों को इस प्रकार से परिवर्तित किया जाता है कि परिवर्तित प्राप्तांकों का वितरण सामान्य प्रायिकता वितरण (NPC) के अनुरूप भी हो जाता है तब इस प्रकार की स्केलिंग को सामान्यीकृत स्केलिंग के नाम से ही पुकारते हैं। सामान्यीकृत स्केलिंग में किसी परीक्षक के द्वारा प्राप्त अंकों को किसी निश्चित मध्यमान तथा मानक विचलन पर परिवर्तित करने के साथ-साथ प्राप्तांकों का वितरण सामान्य प्रायिकता वक्र (NPC) के आकार को भी ग्रहण कर लेता है। वस्तुतः प्राप्तांकों के दो वितरकों का प्रसार अथवा मध्यमान व मानक स्केलिंग रणनीति के बारे में सवाल विचलन एक समान होते हुये भी उनमें पर्याप्त भिन्नता हो सकती है जैसे (30, 32, 35, 41, व 62) तथा (30, 41, 50, 55, 58 व 62) तथा (28, 32, 55, व 75) के लिए मध्यमान तथा मानक विचलन एक समान विचलन के समान होने पर भी प्राप्तांकों के वितरण की तुलना तब तक तर्कसंगत नहीं हो सकती जब तक दोनों वितरण की आकृति भी समान न हो अतः कुछ परिस्थितियों में रेखीय स्केलिंग पर्याप्त नहीं होती है। जब विभिन्न परीक्षकों के द्वारा प्रदान किये गये अंकों के वितरण की आकृति भिन्न-भिन्न होती है तब सामान्यीकृत स्केलिंग का प्रयोग करना होता है। शिक्षाशास्त्र, मनोविज्ञान, समाजशास्त्र आदि व्यावहारिक विज्ञानों में प्रयुक्त अधिकांश चरों का वितरण सामान्य होता है। इस लिए इनमें स्केलिंग के द्वारा प्राप्तांकों को इस प्रकार परिवर्तित किया जाता है कि मध्यमान व मानक विचलन एक समान हो जायें तथा वितरण सामान्य प्रायिकता वक्र (NPC) का आकार ले ले।
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